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कविता संग्रह >> घटनाओं के मध्य में

घटनाओं के मध्य में

रामनिवास जाजू

प्रकाशक : राजपाल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :111
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5548
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है रामनिवास जाजू की कविताओं का संग्रह

Ghatavo Ke Mathya Mein

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

दो शब्द

साहित्य-सृजन के लिये एक परिवेश विशेष की मान्यता हो सकती है किन्तु उस परिवेश से दूर रहकर भी यदि कोई साहित्य-सृजन कर सके तो उसे संदेह की दृष्टि से देखना साहित्यिक औदार्य का लक्षण नहीं कहा जा सकता। मकड़ी के कलात्मक जाले केवल पुराने मकानों में ही मिलेंगे यह तो मात्र पुरानपन ही है। आज तो परिवेश की भिन्नता, अथवा विभिन्नता ही व्यक्ति की विशेषता कहलाती है। मेरा परिवेश तो औद्योगिक और व्यावसायिक रहा है जिसमें अभाव, प्रभाव, पद-सत्ता तथा शोषण आदि में अनेक दुर्भेद्य आवरण हैं जो अभिव्यक्ति की सामर्थ्य को कुंठित कर सकते हैं। किन्तु मैंने अपने व्यक्ति को बन्धनों तथा संकोचों के बीच साहस के साथ जीवित रक्खा और उसे मानसिक, शारीरिक तथा व्यावहारिक तीनों स्तरों पर भोगे गये जीवन से प्राप्त अनुभवों को वाणी देने की खुलकर छूट दी। उठे हुए विचार को क्षमता होते हुए भी व्यक्त न करना, मेरी दृष्टि में एक प्रकार की गर्भस्थ हत्या है, और अपनी जानकारी में मैं किसी भी ऐसी भ्रूण-हत्या का जिम्मेदार नहीं हूं। अपनी इसी उपलब्धि के दौर में मैंने बदली हुई नई स्थितियों को अपने परिवेश से अलग हटकर, अपने परिवेश को कुछ अंशों में चोट खाते और टूटते देखकर भी युग-बोध को उभारा और स्वीकारा है:

आप कहें यह रात अँधेरी
मुझको लेकिन दिखता भोर
दृष्टि आपकी है तारों पर
मेरी है पृथ्वी की ओर
बिछुड़ गए हैं जो सत्ता से,
वे मिट्टी से कतराते हैं
जो बन सकते धूल-धूसरित
युग के रथ पर चढ़ जाते हैं....
जिनको सिंहासन पाना है
उनको जनता तक जाना है
जनता कामधेनु इस युग की
उसने सबको पहचाना है...
आप चाहते नहीं क्रांति पर
क्रांति सदा अनचाही होती
नए नए युगबोध उभरते
नए नए यह सपने गोती
आप कहें यह केवल आँधी
जन मानस पर आत्म-विभोर,
आप बँधे अपनी छाया में,
यह है परिवर्तन का दौर

व्यावहारिक जीवन में समझौतों की भाषा सफलता के भवन-निर्माण में भले ही सहायक हो सकती है किन्तु अभिव्यक्ति की फसलों को, दाना पड़ने से पहले ही दीमक बनकर समाप्त भी करती देखी गई है। समझ-बूझकर अपने पूर्व निर्णय और निश्चय को नया मोड़ दे देना एक सर्वथा भिन्न बात है, अन्यथा समझौतों के संवाद और सहानुभूति प्रदर्शन को मैंने एक घिसा-पिटा सैटायर ही माना है। मेरा तो ठोस, तीखे और कभी-कभी घिनौने सत्य से साबका पड़ा है और उसकी प्रतिक्रिया-स्वरूप, समझौतों के आकर्षण में न पड़ते हुए मैं जैसा लिख सका, लिख गया। कविता के माध्यम से अपने हृदय का अमृत निचोड़ने का गर्व अनुभव कर गया। मैं इसे उपलब्धि मानता हूँ और घटनाओं में खड़े रहने की ताकत के रूप में इसे पहचानता हूँ-नमन करता हूँ:

चला अकेला, बढ़ा अकेला,
थकने पर भी खड़ा अकेला
कई बार हो चुकी परीक्षा
हर मुश्किल से लड़ा अकेला,
पीड़ा को ही पाल पालकर
मैं पार उतरना सीख गया
सुख की जब मजबूरी समझी
मैं दुख मैं जीना सीख गया
सुख में भय हमको लगता है,
दुख में हम भय बन जाते हैं-
मैं निर्भयता का बहुत पुरानी रोगी,
सुख की कायरता मेरा उपचार नहीं,
मैं अभाव का अमृत इतना पी बैठा
अब वैभव का गरल घूँट स्वीकार नहीं

समझौतों की अफीम से अलग रहकर, घटनाओं की घाटियों तक जाने के लक्ष्य से निम्नांकित पंक्तियां लिखी गई हैं:

हम आगे बढ़ते नहीं
घटनाओं को
गढ़ते नहीं...
क्योंकि हम बौने हैं
युग-प्रवर्तक नहीं
समय के खिलौने हैं।

मेरी नई प्रकार की कविताओं में यद्यपि अन्त्यानुप्रास का अस्तित्व मेरे गीतात्मक संस्कारों को प्रतिध्वनित करता है, तथापि इनका साँचा, इनका वाह्य रूप, स्वयं कथ्य के भीतर से उद्भूत होता है, और मैं चाहकर भी किसी ऐसे पूर्व-निश्चित साँचे को जो कथ्य की प्रकृति के अनुकूल नहीं था, उस पर आरोपित नहीं कर सका। शायद यही कारण है कि मेरी संस्कार-जन्य छन्दोबद्धता और गेयता को पीछे ठेलकर अभिव्यक्ति ने स्वयं ही यह रूप ले लिया :
आज सारी चेतना ही

भेद की है
मत की नहीं
मत-भेद मात्र एक चारा है
सृजन और सिद्धांत की कब्र पर
उगने वाला
काँटा बनकर
चुभने वाला

प्रस्तुत संग्रह की कविताएँ दो खंडों में विभक्त हैं-‘अस्तित्व का श्रेय’ और ‘घटनाओं के मध्य में’। पहले खण्ड की कविताओं में जीवन के प्रति आदर्शवादी दृष्टिकोण को अभिव्यक्ति मिली है जिसमें आस्था और प्रतिबद्धता का स्वर विशेष रूप से मुखरित है। दूसरे खण्ड में युग-जीवन की विसंगतियों और विषमताओं का चित्रण है। इन कविताओं में वैचारिक तत्त्व प्रमुख हैं और वह भाव-संकुलता जो गीतों को जन्म देती है, पीछे छूटती दिखाई देती है।

चित्रांकना में यद्यपि मेरी स्वयं की कोई गति नहीं है किन्तु इस कला के प्रति मेरे मन में आकर्षण बड़ा प्रबल है और मुझे कविता के कथ्य को रेखाओं में चित्रित देखना सुखद लगा करता है। यही कारण है कि इस संग्रह के लिये भी मैंने हर कविता के साथ एक रेखाचित्र तैयार कराया है। ये चित्र एक ओर मेरी कविताओं के समर्थ अर्थ हैं और दूसरी ओर रेखाओं से जड़े खडे़ दर्पण। आशा है ये रेखाचित्र पाठकों को रुचिकर प्रतीत होंगे।

मेरे जीवन की कहानी में कविता का आना, एक विहग की भाँति फड़फड़ाना और एक विचित्रा की तरह स्थापित हो जाना, एक विसंगत किन्तु असाधारण घटना है जिससे दूर जाकर अब मैं दुखी नहीं होता किन्तु जिसके पास रहकर मैं सुखी और गौरवान्वित हो जाता हूँ। किसी विश्वास के बल पर ही एक दिन मैंने कविता से साक्षात्कार किया था जो आज ऐसी कृति-आकृति बन चुका है कि यदि कहीं विश्वास जताने और स्थापित करने कभी कुछ कहना पड़ेगा तो कविता की ही सौगंध खाऊँगा। शेष निवेदन तो इतना ही है कि सुख गौरव और विश्वास की इस निरंतर परिक्रमा से प्राप्त मानसिक महिमाओं को मैं अपने पाठकों, श्रोताओं और शुभेच्छुओं पर ही न्यौछावर करता हूँ।

-रामनिवास जाजू


अस्तित्व का श्रेय
अमृत का अभाव


मैं अभाव का अमृत इतना पी बैठा
अब वैभव का गरल-घूँट स्वीकार नहीं
चला अकेला बढ़ा अकेला थकने पर भी खड़ा अकेला
कई बार हो चुकी परीक्षा हर मुश्किल से लड़ा अकेला
पीड़ा को ही पाल-पालकर पार उतरना सीख गया मैं
सुख की जब मजबूरी समझी दुख में जीना सीख गया मैं
सुख में भय हमको लगता है दुख में हम भय बन जाते हैं
मैं निर्भयता का बहुत पुराना रोगी
सुख की कायरता मेरा उपचार नहीं

मैंने अपनों को मौसम की ही तरह बदलते देखा है
कुछ को जीवन में हर मौसम की भांति सँभलते देखा है
संकट को ही मैं सत्ता का आधार समझता आया हूँ
मैं आँसू को जल नहीं सदा पतवार समझता आया हूँ
दुर्दिन में भी जो माँग मदद की नहीं करे वह वज्र हृदय
धारण करके मैं स्वाभिमान का प्यासा
कृपा-कलश का मुझ पर तो उपकार नहीं

स्नेह बरसाता रहूँगा


घूँट पीकर भी गरल का स्नेह बरसाता रहूँगा

तय करूँ मंजिल वही जिस ओर कोई जा न पाया
झेलता अवसाद वह जग देख जिसको तिलमिलाया
जो स्वयं कुछ कर न पाये फेंकते फुफकार मुझ पर
व्यर्थ की आलोचना कर थोपते हैं हार मुझ पर
पर नियम मैंने बनाया-
मसल कर अपमान को सम्मान बँटवाता रहूँगा
घूँट पीकर भी गरल का स्नेह बरसाता रहूँगा

है जवानी देह की सच साधना में भी युवापन
किन्तु मैं तो बढ़ चला लख जिन्दगी की ऋतु सुहावन
वायु लहरें तुम हिलाकर कह रहे कलियाँ चटकतीं
चल नहीं पाये स्वयं तो चाल मेरी है खटकती
पर अमर विश्वास भर लो-
मैं पसीने पर तुम्हारे खून टपकाता रहूँगा
घूँट पीकर भी गरल का स्नेह बरसाता रहूँगा

कह दिया उत्साह से तू पा सफलता पर सफलता
किन्तु मैं जब श्वास खींचूँ तुम लगे जपने विफलता
हाय आशीर्वाद को ही धो रहे अभिशाप से तुम
क्यों दगा-यह कर रहे हो आज अपने आप से तुम
पर विकल- निर्मम घड़ी में-
जब तुम्हारे अश्रु छलकें हाथ फैलाता रहूँगा
घूँट पीकर भी गरल का स्नेह बरसाता रहूँगा

क्रोध में तुम कहोगे व्यर्थ ही यह गुनगुनाता
लिख दिया जो लेखनी से बस उसे कविता बताता
किन्तु कवि की लेखनी से ही सदा संसार बनते
और कवि के ही अधर से चित्र भावी के फिसलते
तुम कहोगे इस युवक के-
कण्ठ में तो स्वर नहीं है पर सतत गाता रहूँगा
घूँट पीकर भी गरल का स्नेह बरसाता रहूँगा

पिलानी। 19-2-51


तृप्ति का संसार क्यों लूँ


जिन्दगी का बोझ क्या कम मौत का आभार क्यों लूँ
होड़ मैंने तो नहीं है आज तक ठानी किसी से
किन्तु जग ही ठान ले जब ठन गई मेरी उसी से
जीत में ही उलझनें क्या कम अब करारी हार क्यों लूँ
जिन्दगी का बोझ क्या कम मौत का फिर भार क्यों लूँ

माँगने पर मिल सके तो कौन इससे चूकता है
मैं न माँगू पर सदा लगती यही तो मूर्खता है
बिना माँगे रह सकूँ तो माँगने का भार क्यों लूँ
जिन्दगी का बोझ क्या कम मौत का फिर भार क्यों लूँ

देख आया मैं हजारों आजकल के टूटते दिल
प्रेम का आदर्श रख जो व्यर्थ में हैं लूटते दिल
पर मिला माँगे बिना जब लूट का उपहार क्यों लूँ
जिन्दगी का बोझ क्या कम मौत का फिर भार क्यों लूँ

पी न मदिरा पर लगे हैं होंठ से प्याले अनेकों
जग न जाने किन्तु मैंने प्यार भी पाले अनेकों
प्यास में ही स्वाद क्या कम तृप्ति का संसार क्यों लूँ
जिन्दगी का बोझ क्या कम मौत का फिर भार क्यों लूँ

लक्ष्य सम्मुख सैकड़ों हैं सैकड़ों बनते रहेंगे
स्वयं पर विश्वास अतुलित पथ अपरिचित क्या कहेंगे
मनुजता में शक्ति क्या कम देव का अवतार क्यों लूँ
जिन्दगी का बोझ क्या कम मौत का फिर भार क्यों लूँ

हो न परिचय जब मिलन से क्या विरह का स्वाद जानूँ
दूर हूँ सम्मान से जब मैं किसे अपमान मानूँ
हास में ही साधना जब अश्रु का फिर भार क्यों लूँ
जिन्दगी का बोझ क्या कम मौत का फिर भार क्यों लूँ

गीत लिख दूँ गीत गा दूँ कुछ सुनूँ अपनी सुना दूँ
जो न भावुक हो हृदय से भावना उनमें बहा दूँ
चाह थोड़ी ढेर साधन अन्य का अधिकार क्यों लूँ
जिन्दगी का बोझ क्या कम मौत का फिर भार क्यों लूँ

पिलानी। 26-2-52


मरघट की राख


ओ मरघट की राख बता दे तूने किसमें भेद किया है।

पूछ रहा इतिहासकार कब जन्म ‘मृत्यु’ का हुआ धरा पर
कहाँ काल की बाँहे डोलीं सबसे पहले ध्वज फहरा कर।

जला-जला कर शीतल रहने का कब से वरदान मिला है
बतला ओ निर्जीव निडर तन तुझमें किसका प्राण मिला है।

तेरी मुट्ठी-भर हस्ती में किस दुनिया की सोई हस्ती
बोल कुरूप वदन में तेरे समा गई क्यों मानव-बस्ती।

तेरे सूनेपन में उन लाखों की काया डोल रही है
जो मुरझाये बिना खिले ही उनकी किस्मत बोल रही है।

काले गोरे तन वालों को
चिता चढ़ाकर मर्यादा से तूने तो रंग एक दिया है,
ओ मरघट की राख बता दे तूने किसमें भेद किया है।

सुप्त भुजाएँ हैं तुझमें जो थीं ऐरावत-सी बलशाली
जिन नयनों पर परियाँ मोहित उनकी तूने ज्योति छिपा ली।

पाप-पुण्य सब पी मानव के तू अब देवी हो बैठी है
दुनिया का धन निगल-निगल निज निर्धनता खो बैठी है।

बड़े गर्व से बजा नगाड़ा जिसने भू पर राज्य जमाया
दसों दिशा में जीत गुँजाकर आखिर वह तुझमें ही आया।

धरती भी कुछ खिसक गई थी दबकर जिसके महापाप से
उसके अत्याचार रुके हैं केवल तेरे ही प्रताप से।

रावण-कंस मिटाये तूने


किन्तु लीलकर राम-कृष्ण को भी तूने कब खेद किया है,
ओ मरघट की राख बता दे तूने किसमें भेद किया है।

चिता जली औ लपटों ने फिर हैं मरघट में दीप जलाये
किन्तु चिता के इस प्रकाश ने कितने घर के दीप बुझाये।

दीप बुझाकर दीप जलें तो उनका जलना भी क्या जलना
जो विनाश पर ही चलता है उस मंदिर का भी क्या चलना

जीवन में पर साम्यवाद का वह स्वरूप कब आ पाता है
जो मरने पर कुकुंम धोकर राख लगा मरघट लाता है।

हाय-हाय हे राख तुम्हीं ने गाँधी ईसा डस डाले हैं
धन्य-धन्य हे राख तुम्हीं ने घोर कुकर्मी पी डाले हैं।

डोली नृप की या निर्धन की
सम्राज्ञी ओ प्रलय देव की स्थान सभी को एक दिया है,
ओ मरघट की राख बता दे तूने किसमें भेद किया है।

पिलानी। 16-5-51











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